दस महाविद्या: पंचम विद्या महाविद्या भैरवी | भैरवी की भक्ति से शत्रु मुक्त हो जाता है मनुष्य
शास्त्रों में माँ
पार्वती (सती) के दस रूपों को दस महाविद्या कहा गया है इनके वर्णन इस प्रकार है काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। प्रत्येक महाविद्या
का अपना अलग महत्त्व है व अलग पूजा विधि है और अलग फल है इनमे देवी के कुछ रूप
उग्र स्वाभाव के है कुछ सौम्य और कुछ सौम्य उग्र । देवी के उग्र रूप की साधना व
उपासना बिना गुरु के दिशा निर्देशों के ना करे ।
महाविद्या भैरवी:- पांचवी महाविद्या त्रिनेत्र धारी माँ भैरवी के कई रूप है इन्हें त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रूद्र भैरवी, तथा षटकुटा भैरवी इन नामों से जाना जाता है । भैरवी का प्रमुख रूप उग्र है जो सर्वनाश करने में सक्षम है यह रूप इतना शक्तिशाली है की इनकी भयानक गर्जना से ही शत्रु मृत्यु को प्राप्त हो जाता है दुर्गा सप्तसती में माँ भैरवी को देवी चण्डिका भी कहा गया है इनकी साधना बुरी आत्माओ और शारीरिक कमजोरियों को दूर करने के लिए की जाती है ।
महाविद्या भैरवी का रूप (Mahavidya Bhairavi Ka Roop)
वर्ण: काला
केश: खुले हुए व अस्त-व्यस्त
वस्त्र: लाल व सुनहरे
नेत्र: तीन
हाथ: चार
अस्त्र-शस्त्र व हाथों की मुद्रा: खड्ग, तलवार, राक्षस की खोपड़ी व अभय मुद्रा
मुख के भाव: क्रोधित
अन्य विशेषता: राक्षसों की खोपड़ियों के आसन पर विराजमान हैं, जीभ लंबी, रक्तरंजित व बाहर निकली हुई हैं।
महाविद्या भैरवी मंत्र (Mahavidya Bhairavi Mantra)
ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥
महाविद्या भैरवी पूजा के लाभ (Mahavidya Bhairavi Puja Ke Labh)
- बुरी आत्माओं, प्रवत्तियों व शक्तियों के प्रभाव से मुक्ति मिलना
- अभय का मिलना व डर का समाप्त होना
- वैवाहिक व प्रेम जीवन का सुखमय रहना
- शत्रुओं से मुक्ति इत्यादि।
त्रिपुर भैरवी स्तोत्र || Tripura Bhairavi Stotram || Tripura Bhairavi Stotra
श्री भैरव उवाच-
ब्रह्मादयस्स्तुति शतैरपि सूक्ष्मरूपं जानन्तिनैव जगदादिमनादिमूर्तिम् ।
तस्मादमूं कुचनतां नवकुङ्कुमास्यां स्थूलां स्तुवे सकलवाङ्मयमातृभूताम् ॥ १ ॥
सद्यस्समुद्यत सहस्र दिवाकराभां विद्याक्षसूत्रवरदाभयचिह्नहस्तां ।
नेत्रोत्पलैस्त्रिभिरलङ्कृतवक्त्रपद्मां त्वां तारहाररुचिरां त्रिपुरां भजामः ॥ २ ॥
सिन्दूरपूररुचिरां कुचभारनम्रां जन्मान्तरेषु कृतपुण्य फलैकगम्यां ।
अन्योन्य भेदकलहाकुलमानभेदै–र्जानन्तिकिञ्जडधिय स्तवरूपमन्ये ॥ ३ ॥
स्थूलां वदन्ति मुनयः श्रुतयो गृणन्ति सूक्ष्मां वदन्ति वचसामधिवासमन्ये ।
त्वांमूलमाहुरपरे जगताम्भवानि मन्यामहे वयमपारकृपाम्बुराशिम् ॥ ४ ॥
चन्द्रावतंस कलितां शरदिन्दुशुभ्रां पञ्चाशदक्षरमयीं हृदिभावयन्ती ।
त्वां पुस्तकञ्जपपटीममृताढ्य कुम्भां व्याख्याञ्च हस्तकमलैर्दधतीं त्रिनेत्राम् ॥ ५ ॥
शम्भुस्त्वमद्रितनया कलितार्धभागो विष्णुस्त्वमम्ब कमलापरिणद्धदेहः ।
पद्मोद्भवस्त्वमसि वागधिवासभूमि-रेषां क्रियाश्च जगति त्रिपुरेत्वमेव ॥ ६ ॥
आश्रित्यवाग्भव भवाम्श्चतुरः परादीन्-भावान्पदात्तु विहितान्समुदारयन्तीं ।
कालादिभिश्च करणैः परदेवतां त्वां संविन्मयींहृदिकदापि नविस्मरामि ॥ ७ ॥
आकुञ्च्य वायुमभिजित्यच वैरिषट्कं आलोक्यनिश्चलधिया निजनासिकाग्रां ।
ध्यायन्ति मूर्ध्नि कलितेन्दुकलावतंसं त्वद्रूपमम्ब कृतिनस्तरुणार्कमित्रम् ॥ ८ ॥
त्वं प्राप्यमन्मथरिपोर्वपुरर्धभागं सृष्टिङ्करोषि जगतामिति वेदवादः ।
सत्यन्तदद्रितनये जगदेकमातः नोचेद शेषजगतः स्थितिरेवनस्यात् ॥ ९ ॥
पूजांविधायकुसुमैः सुरपादपानां पीठेतवाम्ब कनकाचल कन्दरेषु ।
गायन्तिसिद्धवनितास्सहकिन्नरीभि-रास्वादितामृतरसारुणपद्मनेत्राः ॥ १० ॥
विद्युद्विलास वपुषः श्रियमावहन्तीं यान्तीमुमांस्वभवनाच्छिवराजधानीं ।
सौन्दर्यमार्गकमलानिचका सयन्तीं देवीम्भजेत परमामृत सिक्तगात्राम् ॥ ११ ॥
आनन्दजन्मभवनं भवनं श्रुतीनां चैतन्यमात्र तनुमम्बतवाश्रयामि ।
ब्रह्मेशविष्णुभिरुपासितपादपद्मं सौभाग्यजन्मवसतिं त्रिपुरेयथावत् ॥ १२ ॥
सर्वार्थभाविभुवनं सृजतीन्दुरूपा यातद्बिभर्ति पुनरर्क तनुस्स्वशक्त्या ।
ब्रह्मात्मिकाहरतितं सकलम्युगान्ते तां शारदां मनसि जातु न विस्मरामि ॥ १३ ॥
नारायणीति नरकार्णवतारिणीति गौरीति खेदशमनीति सरस्वतीति ।
ज्ञानप्रदेति नयनत्रयभूषितेति त्वामद्रिराजतनये विबुधा पदन्ति ॥ १४ ॥
येस्तुवन्तिजगन्मातः श्लोकैर्द्वादशभिःक्रमात् ।
त्वामनु पाप्र्यवाक्सिद्धिं प्राप्नुयुस्ते पराम्श्रियम् ॥ १५ ॥
इतिते कथितं देवि पञ्चाङ्गं भैरवीमयं ।
गुह्याद्गोप्यतमङ्गोप्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ १६ ॥
इति श्रीरुद्रयामले उमामहेश्वर संवादे पञ्चाङ्गखण्ड निरूपणे श्रीभैरवीस्तोत्रम् ।