सिर्फ तेंदुओं के लिए ही नहीं बल्कि माँ के चमत्कारी मंदिर के लिए जाना जाता है जवाईं बांध
जय माता दी
आज हम आपको एक ऐसे दिव्य व गुप्त स्थान के बारे मे बताने जा रहे है। जो सदियो से माँ शक्ति अपने 3 स्वरूपों मे विद्यमान है और भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी करती है। हम बात कर रहे है वीर भूमि राजस्थान के पाली जिले के बाली तहसील मे जवाईं बांध के बीच मे पहाड़ी टापू पर स्तिथ माँ देवगिरि, माँ आवरी और माँ वाराही के मंदिरों की। माँ के तीनों मंदिर किसी मनुष्य द्वारा नहीं बल्कि प्रकृति द्वारा निर्मित है। सभी दिशाओं से पानी से घिरा हुआ टापू अपने आप मे प्रकृति की शक्तियों का अनुभव करवाता है। माँ के भव्य स्वरूप के साथ भैरव भी कोतवाल के रूप मे उपस्थित है।
मंदिर का इतिहास कितना पुराना है इसकी सटीक और वास्तविक जानकारी अभी तक शायद ही किसी को पता होगी। लेकिन कहा जाता है की पास ही के भाटून्द, मोरी, सेना दुदनी व अन्य गाँव वाले माँ देवगिरि, माँ आवरी व माँ वारही को अपनी कुलदेवी के रूप मे पूजते है। हमारी जानकारी के अनुसार भाटून्द गाँव के सहस्त्रऔदिच्य गोमतीवाल ब्राह्मण समाज के जानी परिवार की कुलदेवी है माँ व कहा जाता है की यह समाज और परिवार 9वीं शताब्दी से इस गाँव मे निवास कर रहा है। कहानियों के अनुसार मेवाड़नाथ द्वारा सहस्त्रऔदिच्य गोमतीवाल ब्राह्मण समाज व हिंदुओं को यह गाँव भेंट स्वरूप दिया था जिसके प्रमाण के रूप मे तांबपत्र आज भी गाँव के कुछ बुजुर्गो के पास सुरक्षित है।
अक्सर यह सवाल आता है की माँ देवगिरि का मंदिर वहाँ बना कैसे? इसपर कुछ कहानियाँ प्रचलित है। जिनसे से एक कहानी हमने सुनी है वह लिख रहे है।
कहा जाता है की प्राचीन समय मे एक असुर वरदान के मद मे देवियों से युद्ध की इच्छा से उनके लोक पर आक्रमण करने गया था। उस समय माँ देवगिरि, माँ आवरी और माँ वाराही जो की तीन बहन है। (ऐसी मान्यता है गाँव वालों की) देवियों ने असुर को मिले वरदान का मान रखते हुये उससे युद्ध नहीं करने का निर्णय लिया और अपने लोक से निकालकर अरावली के पर्वतों की और चली गईं। अरावली पर्वत पहुँच कर तीनों देवियाँ कुछ दूर पानी के बीच पर्वत शृंखला की छोटी पर पहुंची और ऐसा कहाँ जाता है की सर्वप्रथम माँ देवगिरि ने एक पर्वत की बीच से फाड़कर वह एक गुफ़ा का निर्माण किया और वही गुफ़ा के सबसे गहरे हिस्से में जाकर निवास करने लगी। फिर माँ आवरी भी कुछ दूर ही एक बड़ी से चट्टान पर निवास करने लगी और माँ वाराही ने भी वह से थोड़ी ही दूरी पर अपना निवास बनाया। माँ के साथ दोनों भैरव भी वही निवास करते है। श्री काल भैरव एवं श्री बटुक भैरव तीनों देवियों के साथ कोतवाल के रूप मे निवास करते है।
जिस समय यह घटना हुयी उस वक़्त वह अभी जैसे व्यवस्थित गाँव नहीं था और ना ही जवाईं बांध था। आज भी वह स्थान प्रकृति की गोद मे अपनी भव्यता और दिव्यता से लोगो का ध्यान आकर्षित करता है। आज आस पास में कई गाँव बस गए है। मगरमच्छों और तेंदुओ के साथ अन्य जंगली जानवरों से घिरे रहने के बावजूद भी लोग पूरी श्रद्धा से माँ के मंदिर दर्शन को जाते है प्रति वर्ष वैशाख महीने की चौदस को माँ के मंदिर मे भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। इतने सारे हिंसक जानवरो के होने पर भी आजतक कोई अप्रिय घटना नहीं घटी है। माँ देवगिरि के मंदिर में अनगिनत संख्या मे मधुमक्खियाँ भी निवास करती है समय समय पर माँ अपने जागृत होने का प्रमाण देती है। सूतक काल या शराब पीकर माँ के मंदिर मे प्रवेश वर्जित है।
मंदिर जाने के लिए भाटून्द, बेड़ा, मोरी, सेना, रेला सभी गावों से होकर मार्ग है। लेकिन बारिश के समय बांध पानी से पूरा भरा रहता है इसलिए मार्ग अवरोध रहता है। जिस समय मंदिर जाने के लिए कोई विशेष मार्ग की व्यवस्था नहीं है व आपको बांध के पास से लगे खेतो पर किसानों की नाव का सहारा लेना पड़ता है।
नोट: यह जानकारी प्राचीन कहानियों व मान्यताओं के आधार पर है। हम इस जानकारी की पुष्टि नहीं करते।