दस महाविद्या: तृतीय विद्या महाविद्या त्रिपुर सुंदरी | पढ़े कौन है शिव समान पंचमुखी देवी जो 16 कलाओ से संपन्न है
शास्त्रों में माँ
पार्वती (सती) के दस रूपों को दस महाविद्या कहा गया है इनके वर्णन इस प्रकार है काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। प्रत्येक महाविद्या
का अपना अलग महत्त्व है व अलग पूजा विधि है और अलग फल है इनमे देवी के कुछ रूप
उग्र स्वाभाव के है कुछ सौम्य और कुछ सौम्य उग्र । देवी के उग्र रूप की साधना व
उपासना बिना गुरु के दिशा निर्देशों के ना करे ।
महाविद्या त्रिपुर सुंदरी:- तीसरी महाविद्या देवी त्रिपुर सुंदरी को माता षोडशी भी कहते है चतुर्भुज स्वरुप माँ भी सदाशिव शिव के समान पंचमुखी है । 16 कलाओ से संपन्न होने के कारण देवी को षोडशी कहा जाता है त्रिपुरा में जहा माँ के वस्त्र गिरे थे वही पर माँ का शक्तिपीठ स्थित है जगत के विस्तार का कार्य इन्हीं में सम्मिलित होने के कारण ही इन्हें परा भी कहा गया है । माता का यह स्वरुप सौम्य है यह स्वरुप अत्यंत सुन्दर और सुखकारी व मन को लुभाने वाला था इस रूप के दर्शन से भक्त के मन का भय समाप्त होकर मन की शांति प्राप्त होती है ।
महाविद्या त्रिपुर सुंदरी का रूप (Mahavidya Tripur Sundari Ka Roop)
वर्ण: सुनहरा
केश: खुले हुए व व्यवस्थित
वस्त्र: लाल रंग के
नेत्र: तीन
हाथ: चार
अस्त्र-शस्त्र व हाथों की मुद्रा: पुष्प रुपी पांच बाण, धनुष, अंकुश व फंदा
मुख के भाव: शांत व तेज चमक के साथ
अन्य विशेषता: भगवान शिव की नाभि से निकले कमल के आसन पर विराजमान।
महाविद्या षोडशी के मंत्र (Mahavidya Tripur Sundari ke Mantra)
ॐ ऐ ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:
महाविद्या त्रिपुर सुंदरी पूजा के लाभ (Mahavidya Tripur Sundari Puja Ke Labh)
- सुंदर रूप की प्राप्ति होना
- वैवाहिक जीवन का सुखमय रहना
- जीवनसाथी की तलाश पूरी होना
- मन का नियंत्रण में रहना
- आत्मिक शांति का अनुभव करना इत्यादि ।
श्री त्रिपुरसुन्दरी स्तोत्रम्
कदंबवनचारिणीं मुनिकदम्बकादंविनीं,
नितंबजितभूधरां सुरनितंबिनीसेविताम् |
नवंबुरुहलोचनामभिनवांबुदश्यामलां,
त्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुंदरीमाश्रये ॥|1|
कदंबवनवासिनीं कनकवल्लकीधारिणीं,
महार्हमणिहारिणीं मुखसमुल्लसद्वारुणींम् |
दया विभव कारिणी विशद लोचनी चारिणी,
त्रिलोचन कुटुम्बिनी त्रिपुर सुंदरी माश्रये ॥|2|
कदंबवनशालया कुचभरोल्लसन्मालया,
कुचोपमितशैलया गुरुकृपालसद्वेलया |
मदारुणकपोलया मधुरगीतवाचालया ,
कयापि घननीलया कवचिता वयं लीलया ॥|3|
कदंबवनमध्यगां कनकमंडलोपस्थितां,
षडंबरुहवासिनीं सततसिद्धसौदामिनीम् |
विडंवितजपारुचिं विकचचंद्रचूडामणिं ,
त्रिलोचनकुटुंबिनीं त्रिपुरसुंदरीमाश्रये ॥|4|
कुचांचितविपंचिकां कुटिलकुंतलालंकृतां ,
कुशेशयनिवासिनीं कुटिलचित्तविद्वेषिणीम् |
मदारुणविलोचनां मनसिजारिसंमोहिनीं ,
मतंगमुनिकन्यकां मधुरभाषिणीमाश्रये ॥|5|
स्मरेत्प्रथमपुष्प्णीं रुधिरबिन्दुनीलांबरां,
गृहीतमधुपत्रिकां मधुविघूर्णनेत्रांचलाम् |
घनस्तनभरोन्नतां गलितचूलिकां श्यामलां,
त्रिलोचनकुटंबिनीं त्रिपुरसुंदरीमाश्रये ॥|6|
सकुंकुमविलेपनामलकचुंबिकस्तूरिकां ,
समंदहसितेक्षणां सशरचापपाशांकुशाम् |
असेष जनमोहिनी मरूण माल्य भुषाम्बरा,
जपाकुशुम भाशुरां जपविधौ स्मराम्यम्बिकाम ॥|7|
पुरम्दरपुरंध्रिकां चिकुरबंधसैरंध्रिकां ,
पितामहपतिव्रतां पटुपटीरचर्चारताम् |
मुकुंदरमणीं मणिलसदलंक्रियाकारिणीं,
भजामि भुवनांबिकां सुरवधूटिकाचेटिकाम् ॥|8|
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छंकराचार्य विरचितं त्रिपुरसुन्दरीस्तोत्रं संपूर्णम् ।