दस महाविद्या: षष्ठी विद्या महाविद्या छिन्नमस्ता को सिद्ध कर लिया तो और कुछ पाने को शेष नहीं रह जाता
शास्त्रों में माँ
पार्वती (सती) के दस रूपों को दस महाविद्या कहा गया है इनके वर्णन इस प्रकार है काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। प्रत्येक महाविद्या
का अपना अलग महत्त्व है व अलग पूजा विधि है और अलग फल है इनमे देवी के कुछ रूप
उग्र स्वाभाव के है कुछ सौम्य और कुछ सौम्य उग्र । देवी के उग्र रूप की साधना व
उपासना बिना गुरु के दिशा निर्देशों के ना करे ।
महाविद्या छिन्नमस्ता:- छठवी महाविद्या प्रचण्ड चण्डिका कहलाई जाने वाली देवी छिन्नमस्ता के हाथ में इनका ही कटा हुआ मस्तक है और दुसरे हाथ में कटार है । इनकी उत्पत्ति का प्रयोजन स्पष्ट नहीं है कई पुराणों में इनकी उत्पत्ति को लेकर अलग अलग उल्लेख मिलते है इस से यह स्पष्ट है देवी के इस रूप की उत्पत्ति किसी अति विशेष प्रयोजन से हुयी थी । इनकी साधना विधि भी तांत्रिको, योग्य साधक और सबकुछ त्याग कर भक्ति में समर्पित कुछ ही महानुभावो तक सिमित है इनका स्वभाव अत्यंत क्रूर है इनकी उपासना व साधना आम जन के लिए खतरनाक साबित हो सकती है देवी की उर्जा सहन न कर पाने व इनकें रूप की कल्पना मात्र से जातक भयभीत हो जाता है । झारखंड की राजधानी रांची में इनका मंदिर स्थित है ।
महाविद्या छिन्नमस्ता का रूप (Mahavidya Chinnmasta Ka Roop)
वर्ण: गुड़हल के समान लाल
केश: खुले हुए
वस्त्र: नग्न, केवल आभूषण पहने हुए
नेत्र: तीन
हाथ: दो
अस्त्र-शस्त्र व हाथों की मुद्रा: खड्ग व अपना कटा हुआ सिर
मुख के भाव: अपना ही रक्त पीते हुए
अन्य विशेषता: धड़ में से तीन रक्त की धाराएँ निकल रही हैं जिसमें से दो रक्त की धाराएँ पास में खड़ी सेविकाएँ पी रही हैं। मैथुन करते हुए जोड़े के ऊपर खड़ी हैं। गले में नरमुंडों की माला पहने हुए हैं।
महाविद्या छिन्नमस्ता मंत्र (Mahavidya Chinnmasta Mantra)
श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा
श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट् स्वाहा॥
महाविद्या छिन्नमस्ता पूजा के लाभ (Mahavidya Chinnmasta Puja Ke Labh)
- शत्रुओं का समूल नाश
- भय का दूर होना
- विपत्तियों का समाप्त होना इत्यादि।
माँ छिन्नमस्ता स्तोत्र
आनन्दयित्रि परमेश्वरि वेदगर्भे मातः पुरन्दरपुरान्तरलब्धनेत्रे ।
लक्ष्मीमशेषजगतां परिभावयन्तः सन्तो भजन्ति भवतीं धनदेशलब्ध्यै ॥ १॥
लज्जानुगां विमलविद्रुमकान्तिकान्तां कान्तानुरागरसिकाः परमेश्वरि त्वाम् ।
ये भावयन्ति मनसा मनुजास्त एते सीमन्तिनीभिरनिशं परिभाव्यमानाः ॥ २॥
मायामयीं निखिलपातककोटिकूटविद्राविणीं भृशमसंशयिनो भजन्ति ।
त्वां पद्मसुन्दरतनुं तरुणारुणास्यां पाशाङ्कुशाभयवराद्यकरां वरास्त्रैः ॥ ३॥
ते तर्ककर्कशधियः श्रुतिशास्त्रशिल्पैश्छन्दोऽ- भिशोभितमुखाः सकलागमज्ञाः ।
सर्वज्ञलब्धविभवाः कुमुदेन्दुवर्णां ये वाग्भवे च भवतीं परिभावयन्ति ॥ ४॥
वज्रपणुन्नहृदया समयद्रुहस्ते वैरोचने मदनमन्दिरगास्यमातः ।
मायाद्वयानुगतविग्रहभूषिताऽसि दिव्यास्त्रवह्निवनितानुगताऽसि धन्ये ॥ ५॥
वृत्तत्रयाष्टदलवह्निपुरःसरस्य मार्तण्डमण्डलगतां परिभावयन्ति ।
ये वह्निकूटसदृशीं मणिपूरकान्तस्ते कालकण्टकविडम्बनचञ्चवः स्युः ॥ ६॥
कालागरुभ्रमरचन्दनकुण्डगोल- खण्डैरनङ्गमदनोद्भवमादनीभिः ।
सिन्दूरकुङ्कुमपटीरहिमैर्विधाय सन्मण्डलं तदुपरीह यजेन्मृडानीम् ॥ ७॥
चञ्चत्तडिन्मिहिरकोटिकरां विचेला- मुद्यत्कबन्धरुधिरां द्विभुजां त्रिनेत्राम् ।
वामे विकीर्णकचशीर्षकरे परे तामीडे परं परमकर्त्रिकया समेताम् ॥ ८॥
कामेश्वराङ्गनिलयां कलया सुधांशोर्विभ्राजमानहृदयामपरे स्मरन्ति ।
सुप्ताहिराजसदृशीं परमेश्वरस्थां त्वामाद्रिराजतनये च समानमानाः ॥ ९॥
लिङ्गत्रयोपरिगतामपि वह्निचक्र- पीठानुगां सरसिजासनसन्निविष्टाम् ।
सुप्तां प्रबोध्य भवतीं मनुजा गुरूक्तहूँकारवायुवशिभिर्मनसा भजन्ति ॥ १०॥
शुभ्रासि शान्तिककथासु तथैव पीता स्तम्भे रिपोरथ च शुभ्रतरासि मातः ।
उच्चाटनेऽप्यसितकर्मसुकर्मणि त्वं संसेव्यसे स्फटिककान्तिरनन्तचारे ॥ ११॥
त्वामुत्पलैर्मधुयुतैर्मधुनोपनीतैर्गव्यैः पयोविलुलितैः शतमेव कुण्डे ।
साज्यैश्च तोषयति यः पुरुषस्त्रिसन्ध्यं षण्मासतो भवति शक्रसमो हि भूमौ ॥ १२॥
जाग्रत्स्वपन्नपि शिवे तव मन्त्रराजमेवं विचिन्तयति यो मनसा विधिज्ञः ।
संसारसागरसमृद्धरणे वहित्रं चित्रं न भूतजननेऽपि जगत्सु पुंसः ॥ १३॥
इयं विद्या वन्द्या हरिहरविरिञ्चिप्रभृतिभिः पुरारातेरन्तः पुरमिदमगम्यं पशुजनैः ।
सुधामन्दानन्दैः पशुपतिसमानव्यसनिभिः सुधासेव्यैः सद्भिर्गुरुचरणसंसारचतुरैः ॥ १४॥
कुण्डे वा मण्डले वा शुचिरथ मनुना भावयत्येव मन्त्री संस्थाप्योच्चैर्जुहोति प्रसवसुफलदैः पद्मपालाशकानाम् ।
हैमं क्षीरैस्तिलैर्वां समधुककुसुमैर्मालतीबन्धुजातीश्वेतैरब्धं सकानामपि वरसमिधा सम्पदे सर्वसिद्ध्यै ॥ १५॥
अन्धः साज्यं समांसं दधियुतमथवा योऽन्वहं यामिनीनां मध्ये देव्यै ददाति प्रभवति गृहगा श्रीरमुष्यावखण्डा ।
आज्यं मांसं सरक्तं तिलयुतमथवा तण्डुलं पायसं वा हुत्वा मांसं त्रिसन्ध्यं स भवति मनुजो भूतिभिर्भूतनाथः ॥ १६॥
इदं देव्याः स्तोत्रं पठति मनुजो यस्त्रिसमयं शुचिर्भूत्वा विश्वे भवति धनदो वासवसमः ।
वशा भूपाः कान्ता निखिलरिपुहन्तुः सुरगणा भवन्त्युच्चैर्वाचो यदिह ननु मासैस्त्रिभिरपि ॥ १७॥
॥ इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितः प्रचण्डचण्डिकास्तवराजः समाप्तः ॥