दस महाविद्या: सप्तम विद्या महाविद्या धूमावती | शिव को ही निगल कर स्वयं विधवा हो गयी थी देवी
शास्त्रों में माँ
पार्वती (सती) के दस रूपों को दस महाविद्या कहा गया है इनके वर्णन इस प्रकार है काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। प्रत्येक महाविद्या
का अपना अलग महत्त्व है व अलग पूजा विधि है और अलग फल है इनमे देवी के कुछ रूप
उग्र स्वाभाव के है कुछ सौम्य और कुछ सौम्य उग्र । देवी के उग्र रूप की साधना व
उपासना बिना गुरु के दिशा निर्देशों के ना करे ।
महाविद्या धूमावती:- सातवी महाविद्या नकारात्मक गुणों का अवतार है लेकिन वर्ष के एक विशेष समय विशेष प्रयोजन से इनके इस रूप की पूजा की जाती है, माँ धूमावती विधवा रूप में है । पुराणो की एक कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती को अत्यतं तीव्र भूख लगी थी वे भगवान् शंकर के पास जाकर भोजन की मांग करती है लेकिन शिव समाधी में लीन थे । माँ पार्वती के बार बार निवेदन के बाद भी शंकर जी का ध्यान नहीं टूटा तब भूख से व्याकुल देवी पार्वती ने श्वास खीचकर शिवजी को ही निगल लिया । भगवान् शिव के कंठ में विष होने के कारण माँ के शरीर से धुआं निकालने लगता है उनका शरीर शृंगार विहीन और विकृत हो जाता है और माँ पार्वती की भूख शांत हो जाती है तत्पश्चात् भगवान शिव माया के द्वारा मां पार्वती के शरीर से बाहर आते हैं और पार्वती के धूम से व्याप्त स्वरूप को देख कर कहते हैं अब से आप इस वेश में भी पूजे जाएंगे। इसी कारण मां पार्वती का नाम देवी धूमावती पड़ा। माँ के इस रूप को सुतरा भी कहा जाता है अर्थात सुखपूर्वक तारने वाली और यह उग्र रूप है ।
महाविद्या धूमावती का रूप (Mahavidya Dhumavati Ka Roop)
वर्ण: श्वेत
केश: खुले, मैले व अस्त-व्यस्त
वस्त्र: श्वेत
नेत्र: दो
हाथ: दो
अस्त्र-शस्त्र व हाथों की मुद्रा: टोकरी व अभय मुद्रा
मुख के भाव: बेचैन, व्याकुल, दुखी, संशय, थकान
अन्य विशेषता: माँ का शरीर अत्यंत बूढ़ा व झुर्रियों वाला हैं तथा कपड़े भी एकदम मैले व कटे-फटे हुए हैं। बिना घोड़े के रथ पर विराजमान हैं जिसके शीर्ष पर कौवां बैठा हैं।
महाविद्या धूमावती मंत्र (Mahavidya Dhumavati Mantra)
ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा॥
महाविद्या धूमावती पूजा के लाभ (Mahavidya Dhumavati Puja Ke Labh)
- संकटों का हरण होना
- नकारात्मक गुणों का समाप्त होना
- किसी प्रकार की कमी का दूर होना
- गरीबी दूर करने हेतु
- भूख का शांत होना इत्यादि ।
धूमावती अष्टक स्तोत्र/Dhumavati Ashtak Stotra
ॐ प्रातर्वा स्यात कुमारी कुसुम-कलिकया जप-मालां जपन्ती।
मध्यान्हे प्रौढ-रुपा विकसित-वदना चारु-नेत्रा निशायाम।।
सन्ध्यायां ब्रिद्ध-रुपा गलीत-कुच-युगा मुण्ड-मालां वहन्ती।
सा देवी देव-देवी त्रिभुवन-जननी चण्डिका पातु युष्मान ।।1।।
बद्ध्वा खट्वाङ्ग कोटौ कपिल दर जटा मण्डलं पद्म योने:।
कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गै: स्रजमुरसी शिर: शेखरं ताक्ष्र्य पक्षै: ।।
पूर्ण रक्त्तै: सुराणां यम महिष-महा-श्रिङ्गमादाय पाणौ।
पायाद वौ वन्ध मान: प्रलय मुदितया भैरव: काल रात्र्या ।।2।।
चर्वन्ती ग्रन्थी खण्ड प्रकट कट कटा शब्द संघातमुग्रम।
कुर्वाणा प्रेत मध्ये ककह कह हास्यमुग्रं कृशाङ्गी।।
नित्यं न्रीत्यं प्रमत्ता डमरू डिम डिमान स्फारयन्ती मुखाब्जम।
पायान्नश्चण्डिकेयं झझम झम झमा जल्पमाना भ्रमन्ती।।3।।
टण्टट् टण्टट् टण्टटा प्रकट मट मटा नाद घण्टां वहन्ती।
स्फ्रें स्फ्रेंङ्खार कारा टक टकित हसां दन्त सङ्घट्ट भिमा।।
लोलं मुण्डाग्र माला ललह लह लहा लोल लोलोग्र रावम्।
चर्वन्ती चण्ड मुण्डं मट मट मटितं चर्वयन्ती पुनातु।।4।।
वामे कर्णे म्रिगाङ्कं प्रलया परीगतं दक्षिणे सुर्य बिम्बम्।
कण्डे नक्षत्र हारं वर विकट जटा जुटके मुण्ड मालम्।।
स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्र ध्वज निकर युतं ब्रह्म कङ्काल भारम्।
संहारे धारयन्ती मम हरतु भयं भद्रदा भद्र काली ।।5।।
तैलोभ्यक्तैक वेणी त्रयु मय विलसत् कर्णिकाक्रान्त कर्णा।
लोहेनैकेन् कृत्वा चरण नलिन कामात्मन: पाद शोभाम्।।
दिग् वासा रासभेन ग्रसती जगादिदं या जवा कर्ण पुरा-
वर्षिण्युर्ध्व प्रब्रिद्धा ध्वज वितत भुजा साSसी देवी त्वमेव।।6।।
संग्रामे हेती कृत्तै: स रुधिर दर्शनैर्यद् भटानां शिरोभी-
र्मालामाबध्य मुर्घ्नी ध्वज वितत भुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा।।
दृंष्ट्वा भुतै: प्रभुतै: प्रिथु जघन घना बद्ध नागेन्द्र कान्ञ्ची-
शुलाग्र व्यग्र हस्ता मधु रुधिर मदा ताम्र नेत्रा निशायाम्।।7।।
दंष्ट्रा रौद्रे मुखे स्मिंस्तव विशती जगद् देवी! सर्व क्षणार्ध्दात्सं
सारस्यान्त काले नर रुधिर वसा सम्प्लवे धुम धुम्रे।।
काली कापालिकी त्वं शव शयन रता योगिनी योग मुद्रा।
रक्त्ता ॠद्धी कुमारी मरण भव हरा त्वं शिवा चण्ड धण्टा।।8।।
।।फलश्रुती।।
ॐ धुमावत्यष्टकं पुण्यं, सर्वापद् विनिवारकम्।
य: पठेत् साधको भक्तया, सिद्धीं विन्दती वंदिताम्।।1।।
महा पदी महा घोरे महा रोगे महा रणे।
शत्रुच्चाटे मारणादौ, जन्तुनां मोहने तथा।।2।।
पठेत् स्तोत्रमिदं देवी! सर्वत्र सिद्धी भाग् भवेत्।
देव दानव गन्धर्व यक्ष राक्षरा पन्नगा: ।।3।।
सिंह व्याघ्रदिका: सर्वे स्तोत्र स्मरण मात्रत:।
दुराद् दुर तरं यान्ती किं पुनर्मानुषादय:।।4।।
स्तोत्रेणानेन देवेशी! किं न सिद्धयती भु तले।
सर्व शान्तीर्भवेद्! चानते निर्वाणतां व्रजेत्।।5।।