दस महाविद्या: प्रथम विद्या महाविद्या काली के प्रसन्न होने पर अजेय हो जाता है भक्त
शास्त्रों में माँ
पार्वती (सती) के दस रूपों को दस महाविद्या कहा गया है इनके वर्णन इस प्रकार है काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। प्रत्येक महाविद्या
का अपना अलग महत्त्व है व अलग पूजा विधि है और अलग फल है इनमे देवी के कुछ रूप
उग्र स्वाभाव के है कुछ सौम्य और कुछ सौम्य उग्र । देवी के उग्र रूप की साधना व
उपासना बिना गुरु के दिशा निर्देशों के ना करे ।
महाविद्या काली: - प्रथम महाविद्या और माता का जाग्रत स्वरुप है काली । माता ने दानवो के वध हेतु यह रूप धरा था, यह रूप अत्यंत भयावह, मुण्डमाल धारण किये हुए है माँ के हाथो में खडग और खप्पर है चण्ड मुण्ड व रक्तबीज का वध करने वाली माँ चामुण्डा का यह रूप भक्तो को निर्भय बनाता है माँ के क्रोध को शांत करने के लिए स्वयं शिव को इनके चरणों के आगे लेटना पड़ा था । गुजरात का पावागढ़ मंदिर माँ का जागृत शक्तिपीठ कहलाता है साथ ही कोलकाता में दक्षिणेश्वर काली और मध्यप्रदेश के उज्जैन में गढ़कालिका के शक्तिपीठो की विशेष मान्यता है ।
महाविद्या काली का रूप (Mahavidya Kali Ka Roop)
वर्ण: काला
केश: खुले हुए व अस्त-व्यस्त
वस्त्र: नग्न अवस्था
नेत्र: तीन
हाथ: चार
अस्त्र-शस्त्र व हाथों की मुद्रा: खड्ग, राक्षस की खोपड़ी, अभय मुद्रा, वर मुद्रा
मुख के भाव: अत्यधिक क्रोधित व फुंफकार मारती हुई
अन्य विशेषता: गले व कमर में राक्षसों की मुंडियों की माला, जीभ अत्यधिक लंबी व रक्त से भरी हुई ।
महाविद्या काली मंत्र (Mahavidya kali ke mantra)
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा
ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिका क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥
महाविद्या काली पूजा के फायदे (Mahavidya Kali Puja Ke Fayde)
- शत्रुओं व दुष्टों का नाश होना
- स्वयं में परिवर्तन आना
- मन से बुरी प्रवत्तियों का निकलना
- अभय का प्राप्त होना
- समय की महत्ता होना इत्यादि ।
महाकाली स्तोत्र संस्कृत
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।1।।
जगन्मोहिनीयं तु वाग्वादिनीयं, सुहृदपोषिणी शत्रुसंहारणीयं |
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।2।।
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्ली, मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात |
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।3।।
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्ता, लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते |
जपध्यान पुजासुधाधौतपंका, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।4।।
चिदानन्दकन्द हसन्मन्दमन्द, शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं |
मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।5।।
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा, कदाचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया |
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।। 6।।
क्षमास्वापराधं महागुप्तभावं, मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत् |
तवध्यान पूतेन चापल्यभावात्, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।। 7।।
यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य, स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च |
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि मुक्ति, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।8।।