दस महाविद्या: द्वितीय विद्या महाविद्या तारा को क्यों कहा जाता भगवान् शिव की माता
शास्त्रों में माँ
पार्वती (सती) के दस रूपों को दस महाविद्या कहा गया है इनके वर्णन इस प्रकार है काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर
भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। प्रत्येक महाविद्या
का अपना अलग महत्त्व है व अलग पूजा विधि है और अलग फल है इनमे देवी के कुछ रूप
उग्र स्वाभाव के है कुछ सौम्य और कुछ सौम्य उग्र । देवी के उग्र रूप की साधना व
उपासना बिना गुरु के दिशा निर्देशों के ना करे ।
तारा महाविद्या: - दस महाविद्या में माँ का तीसरा रूप नीलवर्ण माता तारा बाघ की खाल पहने हुए है इनकी जीभ बाहर निकली हुयी है । माँ का यह स्वरुप भी दुष्टों के संहार के लिए प्रकट हुआ था इसलिए इन्हें भी माँ काली के समान ही माना गया है । प. बंगाल के वीरभूमि जिले में जहा माता सती के नेत्र गिरे थे वही नयनतारा (तारापीठ) है । बोद्ध धर्म में भी माता तारा की पूजा होती है । माता तारा को भगवान् शिव की माता की उपाधि भी प्राप्त है पौराणिक कथाओं के अनुसार समुन्द्र मंथन के समय जब समुन्द्र से हलाहल विष की निकला तब भगवान शिव ने विषपान किया और विष के प्रभाव से सदाशिव को मूर्छा का आभास होने लगा तब माँ पार्वती ने तारा रूप धरकर उन्हें स्तनपान करवाया जिससे शिवजी पर विष का प्रभाव कम हुआ ।
महाविद्या तारा का रूप (Mahavidya Tara Ka Roop)
वर्ण: नीला
केश: खुले हुए व अस्त-व्यस्त
वस्त्र: बाघ की खाल
नेत्र: तीन
हाथ: चार
अस्त्र-शस्त्र व हाथों की मुद्रा: खड्ग, तलवार, कमल फूल व कैंची
मुख के भाव: आश्चर्यचकित व खुला हुआ
अन्य विशेषता: गले में सर्प व राक्षस नरमुंडों की माला।
महाविद्या तारा के मंत्र (Mahavidya Tara ke Mantra)
ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट
महाविद्या तारा पूजा के लाभ (Mahavidya Tara Puja Ke Labh)
- मातृत्व भाव का जागृत होना
- संकटों का दूर होना
- आर्थिक क्षेत्र में उन्नति
- मोक्ष प्राप्ति इत्यादि ।
माँ तारा स्तोत्र
मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ।
फुल्लेन्दीवरलोचनत्रययुते कर्तीकपालोत्पले खड्गं चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये॥ १॥
वाचामीश्वरि भक्तकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धीश्वरि सद्यः प्राकृतगद्यपद्यरचनासर्वार्थसिद्धिप्रदे।
नीलेन्दीवरलोचनत्रययुते कारुण्यवारांनिधे सौभाग्यामृतवर्षणेन कृपया सिञ्च त्वमस्मादृशम्॥ २॥
खर्वे गर्वसमहपूरिततनो सर्पादिभूषोज्ज्वले व्याघ्रत्वक्परिवीतसुन्दरकटिव्याधूतघण्टाङ्किते।
सद्यःकृत्तगलद्रजःपरिलसन्मुण्डद्वयीमूर्धज ग्रन्थिश्रेणिनृमुण्डदामललिते भीमे भयं नाशय॥ ३॥
मायानङ्गविकाररूपललनाबिन्द्वर्धचन्द्रात्मिकेहुंफट्कारमयि त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः।
मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा परावेदनां नहि गोचरा कथमपि प्राप्तां नु तामाश्रये॥ ४॥
त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतांतस्य श्रीपरमेश्वरी त्रिनयनब्रह्मादिसौम्यात्मनः।
संसाराम्बुधिमज्जने पटुतनून् देवेन्द्रमुख्यान् सुरान्मातस्त्वत्पदसेवने हि विमुखान् को मन्दधीः सेवते॥ ५॥
मातस्त्वत्पदपङ्कजद्वयरजोमुद्राङ्ककोटीरिणस्ते देवासुरसंगरे विजयिनो निःशङ्कमङ्के गताः।
देवोऽहं भुवने न मे सम इति स्पर्द्धां वहन्तः परेतत्तुल्या नियतं तथा चिरममी नाशं व्रजन्ति स्वयम्॥ ६॥
त्वन्नामस्मरणात् पलायनपरा द्रष्टुं च शक्ता न ते भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा यक्षाश्च नागाधिपाः।
दैत्या दानवपुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवोडाकिन्यः कुपितान्तकाश्च मनुजा मातः क्षणं भूतले॥ ७॥
लक्ष्मीः सिद्धगणाश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वारिणांस्तम्भश्चापि रणाङ्गणे गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम्।
मातस्त्वत्पदसेवया खलु नृणां सिद्ध्यन्ति ते ते गुणाः कान्तिः कान्ततरा भवेच्च महती मूढोऽपि वाचस्पतिः॥ ८॥
ताराष्टकमिदं रम्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः। प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाह्ने नियतः शुचिः॥ ९॥
लभते कवितां दिव्यां सर्वशास्त्रार्थविद् भवेत्। लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान् यथेप्सितान्॥ १०॥
कीर्ति कान्तिं च नैरुज्यं सर्वेषां प्रियतां व्रजेत्।विख्यातिं चैव लोकेषु प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात्॥ ११॥
।। श्रीमहोग्रताराष्टकस्तोत्रं सुसंपूर्णम्।।